बिलासपुर (अभिषेक मिश्रा) : करीब 100 वर्षों का स्वर्णिम इतिहास अपने भीतर समेटे हुए समूचे उतरी भारत की प्रसिद्घ राम लीला किसी अजूबे से कम नहीं है। एक धार्मिक संस्था का इतने वर्षों तक निर्विघ्र चलना अपने आप में गौरव का विषय है। 21 सिंतबर से शुरू हुई देवभूमि हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जिला की शहर में देवतुल्य पावन भूमि डियारा सेक्टर में हर वर्ष शारदीय नवरात्रों मे खेली जाने वाली रामलीला का वर्णन दूर-दूर तक विख्यात है। बड़े बुजुर्गों के अनुसार कहलूर रियासत के अंतिम शासक राजा आनंद चंद रामलीला के जनक थे।
साठ के दशक में डूबे पुराने शहर जसवंत सिंह की संवाद शैली में हिंदी, उर्दु, फारसी और अंगेजी भाषाओ का समावेश था। पहली बार रामलीला का श्री गणेश गोहर बाजार नाम स्थान से हुआ। उस समय ग्रामीण परिवेश के लिए आंखों के सामने संवाद का प्रदर्शन किसी घटना से कम न था। जैसे जैसे समय बदला वैसे वैसे दर्शकों की संख्या में भी बढ़ोतरी होती गई। देश के विकास के बनाए गए भाखड़ा डैम के कारण नए शहर मे रामलीला के मंचन का स्थान बदलकर कालेज मैदान कर दिया गया।
बेशक अपना अतीत सतलुज में विसर्जित कर लोगों को नए नए जीवन की शुरूआत करनी थी लेकिन कला के पारखी रामलीला रूपी धरोहर को अपने साथ लाना नहीं भूले। नए नगर में कालेज के बाद रामलीला का मंचन कुछ वर्षों तक रौड़ा सेक्टर छात्र स्कूल में होता रहा। परंतु समय के बदलते कालचक्र फिर से स्थानांतरित होकर नगर के डियारा सेक्टर में पहुंच गई। तब से लेकर अब तक यह उत्सव पूरे जोश के साथ यहां आयोजित किया जाता है। संस्था के साथ जुड़े लोगों की निस्वार्थ सेवा, अभिनय, प्रतिभा, श्रमदान आज भी इस विरासती परंपरा को कायम रखे हुए है।
इसी जददोजहद के बीच दूरदर्शन पर प्रसारित हुई रामांनद सागर की रामायण ने दर्शकों का रामलीला से हरण कर लिया। लेकिन इसके बावजूद फिर भी संस्था के लोगों ने हार नहीं मानी और अपनी कड़ी मेहनत से दोबारा लोगों को रामलीला के पंडाल तक खींचा। अब आलम यह है कि बुजुर्गों से विरासत के तौर पर मिली इस अमूल्य धरोहर को युवाओ की आधुनिक सोच ने निखार कर नए रूप में प्रस्तुत किया है। दिल दहलाने वाले व रोमांचित करने वाले दृष्यों को मंच पर लाइव घटित होता देख दर्शकों की आंखे खुली कि खुली रह जाती हैं। वहीं कलाकारों द्वारा निभाए जाने वाले सजीव पात्र भी दिलों पर अमिट छाप छोड़ते हैं। समय के साथ साथ रामलीला की शैली में भी बदलाव आया है। शेयरों, दोहों और छंदों की जगह नए प्रभावशाली संवादों ने ले ली है।
बुजुर्ग कर्णधारों द्वारा लिखी गई स्क्रिप्ट में पूर्णतया शुद्घ हिंदी भाषा का प्रयोग किया गया है। करीब साठ से ज्यादा दृश्यों में विभाजित इस कला संग्रह में स्वयं तैयार व स्वरबद्घ किए गए बीस भजन है जो अत्यंत मार्मिक और ओजस्व से भरे हैं। इन्हीं सभी कालों से रामलीला का नाम बदलकर श्री राम नाटक कर दिया गया। जिसे दर्शकों ने खूब सराहा। श्री राम नाटक मंचन के एक माह पूर्व रिहर्सल व साजो सामान की तैयारियों में सभी कलाकार व कार्यकर्ता जुट जाते हैं। श्री राम नाटक मंचन के लिए कलाकारों को निखाकर उन्हें तैयार करने का काय भी आसान नहीं है।
नए शहर में निर्देशन का कार्यभार स्वर्गीय श्याम लाल पंसारी, ओंकार नाथ शर्मा, रामलाल पुंडीर अनिल कुमार शिशु, नरेंद्र पंडित, अनिल मैहता, राजपाल के अलावा कई वरिष्ठ पुराने कलाकारों ने अपना अमूल्य योगदान दिया है। जबकि कलाकारों में स्वर्गीय संत राम चब्बा, श्याम लाल पंसारी, ज्वाला प्रसाद शर्मा, अनिल कुमार, अनिल मैहता, राजेंद्र चंदेल, संजीव निर्मोही, संदीप गुप्ता, बृजेश कौशल, विकास पुंडीर, नवीन सोनी, सौरव, रिशु, ऋषभ , रजत, संजय कंडरा, नितिन और नईम मोह मद के अलावा कई कलाकारों ने अपने अभिनय की अमिट छाप छोड़ी है।
कुल मिलाकर छोटे-बडे़ सभी कार्यकर्ता निस्वार्थ भाव से प्रभु श्रीराम की सेवा में तल्लीन रहते हैं। गौर हो कि टीवी पर रामायण धारावाहिक के प्रसारण के बाद पंडाल में दर्शकों की भारी कमी हो गई। लोगों को इस परंपरा की ओर आकर्षित करने के कार्य एक चुनौती भरा था, लेकिन तत्कालीन प्रधान ओम प्रकाश खजुरिया की अगवाई में तकनीकी निर्देशक स्वर्गीय विजय बंसल की सोच ने मंचन में अप्रत्याशित परिर्वतन किया और पंडाल दोबारा दर्शकों से भर गया। वर्तमान में श्री राम नाटक समिति की कमान नरेंद्र पंडित के हाथों में है। इस बार इस पावन यज्ञ को सफल बनाने के लिए कार्यकर्ता दिन रात मेहनत कर रहे हैं।